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मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर | शाही शायरी
main ki KHush hota tha dariya ki rawani dekh kar

ग़ज़ल

मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर

शहज़ाद अहमद

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मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर
काँप उट्ठा हूँ गली-कूचों में पानी देख कर

हो कोई बहरूप उस का दिल धड़कता है ज़रूर
मैं उसे पहचान लेता हूँ निशानी देख कर

अध-खुले तन्हा दरीचों का मुझे आया ख़याल
नीम-वा आँखों की रंगत आसमानी देख कर

अब्र के टुकड़ों ने दीवारें बना दीं जा-ब-जा
धूप से जलती फ़ज़ा की बे-करानी देख कर

एक लम्हे में कटा है मुद्दतों का फ़ासला
मैं अभी आया हूँ तस्वीरें पुरानी देख कर

आँख के बादल से कहता है कि दुनिया पर बरस
दिल लब ओ रुख़्सार की शोला-फ़िशानी देख कर

किस तरफ़ ले जाएगी सोए हुए लोगों को रात
डर रहा हूँ उस की आँखों में गिरानी देख कर

दिन वहीं पर काटना हम को क़यामत हो गया
आन बैठे थे जहाँ सुब्हें सुहानी देख कर

दिल में जो कुछ है ज़बाँ का ज़ाइक़ा बनता नहीं
लफ़्ज़ चेहरा ढाँप लेते हैं मआनी देख कर

दिल न जाने कौन सी गहराइयों में खो गया
बहर की मौजों की तहरीरों को फ़ानी देख कर

देर से 'शहज़ाद' कुंज-ए-आफ़ियत में थे असीर
ख़ुश हुआ है दिल बला-ए-ना-गहानी देख कर