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मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा | शाही शायरी
main KHub ahl-e-jahan dekhe aur jahan dekha

ग़ज़ल

मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा

क़ाएम चाँदपुरी

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मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा
पर आश्ना कोई देखा न मेहरबाँ देखा

हमेशा मनअ' तू करता था बाग़ से हम को
कुछ हाल अब गुल ओ गुलशन का बाग़बाँ देखा

तलब कमाल की कोई न कीजियो ज़िन्हार
कि मैं ये कर के फ़ुज़ूली बहुत ज़ियाँ देखा

न जाने कौन सी साअत चमन से बिछड़े थे
कि आँख भर के न फिर सू-ए-गुल्सिताँ देखा

सुने को देखे प हम किस तरह से दें तरजीह
ख़ुदा तो हम ने सुना है तुम्हें बुताँ देखा

ब-रंग-ए-ग़ुंचा बहार उस चमन की सुनते थे
प जूँ ही आँख खुली मौसम-ए-ख़िज़ाँ देखा

न कहते थे तुझे 'क़ाएम' कि दिल किसी को न दे
मज़ा कुछ इस का भला तू ने ऐ मियाँ देखा