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मैं ख़ुद को हर इक सम्त से घेर कर | शाही शायरी
main KHud ko har ek samt se gher kar

ग़ज़ल

मैं ख़ुद को हर इक सम्त से घेर कर

मनमोहन तल्ख़

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मैं ख़ुद को हर इक सम्त से घेर कर
खड़ा हूँ परे ख़ुद से मुँह फेर कर

न ख़ुद से भी मिलने की जल्दी मचा
मिरी मान थोड़ी बहुत देर कर

मैं अपना ही मद्द-ए-मुक़ाबिल हूँ अब
कहूँ ख़ुद से ले अब मुझे ज़ेर कर

कहोगे मगर क्या कि ख़ुद को तो मैं
कहीं से भी ले आऊँगा घेर कर

यूँही खो दिया तुझ को भी ख़ुद को भी
कभी जल्दी कर तो कभी देर कर

नहीं साँस लेने का भी 'तल्ख़' दम
न साँसों का तो जम्अ ये ढेर कर