EN اردو
मैं ख़ामुशी के जज़ीरे में एक पत्थर था | शाही शायरी
main KHamushi ke jazire mein ek patthar tha

ग़ज़ल

मैं ख़ामुशी के जज़ीरे में एक पत्थर था

वली आलम शाहीन

;

मैं ख़ामुशी के जज़ीरे में एक पत्थर था
मगर सदाओं का रेला मिरा मुक़द्दर था

न जाने कौन था किस अजनबी सफ़र पर था
वो क़ाफ़िले से अलग क़ाफ़िले के अंदर था

तमाम शहर को उस का पता मिला मुझ से
वो आइने में था पर आइने से बाहर था

वो जा रहा था समुंदर को झेलने के लिए
अरक़ अरक़ सर-ए-साहिल तमाम मंज़र था

खुला था उस के लिए क़स्र का जुनूबी दर
मगर वहाँ कोई अंदर ही था न बाहर था

वो नर्म रेत के बिस्तर पे जा के लेट गया
खुली जो आँख तो चारों तरफ़ समुंदर था

घिरा हुआ था वो बद-नामियों के हाले में
हसीं कुछ और भी 'शाहीन' उस का पैकर था