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मैं जुर्म-ए-ख़मोशी की सफ़ाई नहीं देता | शाही शायरी
main jurm-e-KHamoshi ki safai nahin deta

ग़ज़ल

मैं जुर्म-ए-ख़मोशी की सफ़ाई नहीं देता

अनवर मसूद

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मैं जुर्म-ए-ख़मोशी की सफ़ाई नहीं देता
ज़ालिम उसे कहिए जो दुहाई नहीं देता

कहता है कि आवाज़ यहीं छोड़ के जाओ
मैं वर्ना तुम्हें इज़्न-ए-रिहाई नहीं देता

चरके भी लगे जाते हैं दीवार-ए-बदन पर
और दस्त-ए-सितम-गर भी दिखाई नहीं देता

आँखें भी हैं रस्ता भी चराग़ों की ज़िया भी
सब कुछ है मगर कुछ भी सुझाई नहीं देता

अब अपनी ज़मीं चाँद के मानिंद है 'अनवर'
बोलें तो किसी को भी सुनाई नहीं देता