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मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का | शाही शायरी
main jite-ji talak rahun marhun aap ka

ग़ज़ल

मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का

वलीउल्लाह मुहिब

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मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का
गर आज क़स्द कीजिए मुझ से मिलाप का

मैं ये समझ के दौड़ूँ हूँ आया वो शहसवार
खटका सुनूँ हूँ जब किसी घोड़े की टॉप का

तुम गाओ अपने राग को उस पास वाइ'ज़ो
मुश्ताक़ जो गधा हो तुम्हारे अलाप का

गो दुख़्त-ए-रज़ से मिलने में बद ठहरे मोहतसिब
देना नहीं धराने में हम उस के बाप का

दुख में नहीं है कोई किसू का शरीक-ए-हाल
याँ खेल मच रहा है अजब आप-धाप का

थपवाईं उन की माटी की ईंटें फ़लक ने हैफ़
था शोर जिन के महलों में तबले की थाप का

औराक़-ए-गंजिफ़ा कहो अस्नाफ़-ए-ख़ल्क़ को
है शौक़ उन के दिल में सदा टीप-टाप का

किस तरह हम से बोसे का वा'दा करे वो शोख़
नजरी रक़ीब से है डरा मुँह की भाप का

कीजो 'मुहिब' निगाह ये छापा है और ही
गंदा करे है दिल को नगीं उस की छाप का