मैं जब भी कोई मंज़र देखता हूँ
ज़रा औरों से हट कर देखता हूँ
कभी मैं देखता हूँ उस की रहमत
कभी मैं अपनी चादर देखता हूँ
नज़र का ज़ाविया बदला है जब से
मैं कूज़े में समुंदर देखता हूँ
कभी मेरे लिए थे फूल जिन में
अब उन हाथों में पत्थर देखता हूँ
सभी हैं मुब्तला-ए-ख़ुद-फ़रेबी
अजब दुनिया का मंज़र देखता हूँ
नहीं बदलाव के आसार कुछ भी
अभी हालात अबतर देखता हूँ
मुक़द्दर में लिखी वीरानियों में
ज़रा सा रंग भर कर देखता हूँ
नज़र आता है मदफ़न ख़्वाहिशों का
कभी जब अपने अंदर देखता हूँ
सुना है आग है उस का सरापा
चलो बाहोँ में भर कर देखता हूँ
बसीरत मुझ में है 'नायाब' ऐसी
मैं हर क़तरे में गौहर देखता हूँ

ग़ज़ल
मैं जब भी कोई मंज़र देखता हूँ
जहाँगीर नायाब