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मैं इंतिहा-ए-यास में तन्हा खड़ा रहा | शाही शायरी
main intiha-e-yas mein tanha khaDa raha

ग़ज़ल

मैं इंतिहा-ए-यास में तन्हा खड़ा रहा

शाहिद कलीम

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मैं इंतिहा-ए-यास में तन्हा खड़ा रहा
साया मिरा शरीक-ए-सफ़र ढूँढता रहा

फैली थी चारों सम्त सियाही अजीब सी
मैं हाथ में चराग़ लिए घूमता रहा

याद उस की दूर मुझ को सर-ए-शाम ले गई
मैं सारी रात अपने लिए जागता रहा

ख़ुद को समेट लेने का अंजाम ये हुआ
मैं रास्ते पे संग की सूरत पड़ा रहा

काग़ज़ की नाव गहरे समुंदर में छोड़ कर
मैं उस के डूबने का समाँ देखता रहा

ठंडी हवा के लम्स का एहसास था अजीब
मैं देर तक शजर की तरह झूमता रहा