मैं इक किरन हूँ उजाला है तमकनत मेरी
तमाम रंगों से भी है मुनासिबत मेरी
मैं इक ख़ला हूँ न बुनियाद है न छत मेरी
मगर हैं दोनों जहाँ फिर भी मिलकियत मेरी
गुज़र रहा हूँ नशेब-ओ-फ़राज़ से लेकिन
सला-ए-आम है फिर भी सलाहियत मेरी
कभी महकता था जो लखनऊ हिना की तरह
इसी दयार में लिक्खी है शहरियत मेरी
कभी भी जल नहीं सकती हैं उँगलियाँ 'मुतरिब'
हर इक चराग़ की लौ पर है सल्तनत मेरी

ग़ज़ल
मैं इक किरन हूँ उजाला है तमकनत मेरी
मतरब निज़ामी