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मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया | शाही शायरी
main ho ke tere gham se nashad bahut roya

ग़ज़ल

मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया

ताबाँ अब्दुल हई

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मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
रातों के तईं कर के फ़रियाद बहुत रोया

हसरत में दिया जी को मेहनत की न हुइ राहत
मैं हाल तिरा सुन कर फ़रहाद बहुत रोया

गुलशन से वो जूँ लाया बुलबुल ने दिया जी को
क़िस्मत के उपर अपनी सय्याद बहुत रोया

नश्तर तो लगाता था पर ख़ूँ न निकलता था
कर फ़स्द मिरी आख़िर फ़स्साद बहुत रोया

कर क़त्ल मुझे उन ने आलम में बहुत ढूँडा
जब मुझ सा न कुइ पाया जल्लाद बहुत रोया

जब यार मिरा बिगड़ा ख़त आए से ऐ 'ताबाँ'
तब हुस्न को मैं उस के कर याद बहुत रोया