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मैं हरे मौसमों में जलता रहा | शाही शायरी
main hare mausamon mein jalta raha

ग़ज़ल

मैं हरे मौसमों में जलता रहा

मुज़फ़्फ़र वारसी

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मैं हरे मौसमों में जलता रहा
ख़ुशबुओं से धुआँ निकलता रहा

आग पर होंट रख दिए थे कभी
आख़िरी साँस तक पिघलता रहा

मैं अकेला भी कारवाँ की तरह
रास्तों के बग़ैर चलता रहा

हादसे मुझ को पेश आते रहे
और ज़माने का जी बहलता रहा

मेरी आवाज़ मुन्हरिफ़ न हुई
वक़्त का फ़ैसला बदलता रहा

ज़िंदगी मुझ को क़त्ल करती रही
मौत की वादियों में पलता रहा

कारोबार-ए-सुख़न किया मैं ने
या 'मुज़फ़्फ़र' लहू उगलता रहा