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मैं हम-नफ़स हूँ मुझे राज़-दाँ भी करना था | शाही शायरी
main ham-nafas hun mujhe raaz-dan bhi karna tha

ग़ज़ल

मैं हम-नफ़स हूँ मुझे राज़-दाँ भी करना था

शफ़क़ सुपुरी

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मैं हम-नफ़स हूँ मुझे राज़-दाँ भी करना था
जो तुझ पे बीत रही है बयाँ भी करना था

अता किया था मकाँ किस लिए अगर मुझ को
तमाम शहर में बे-ख़ानुमाँ भी करना था

तिरे ख़याल की सरहद से भी परे जो था
मुझे उबूर वो दश्त-ए-ज़ियाँ भी करना था

तो क्या वो मौसम-ए-शोरिश में ही ये भूल गए
बहाल शहर में अम्न-ओ-अमाँ भी करना था

उस आफ़्ताब को अपनी रिदा उतारनी थी
हमारे चश्मा-ए-ख़ूँ को रवाँ भी करना था

बना दिया दर-ओ-दीवार ख़ामुशी से अगर
तो फिर मकाँ को मिरे ला-मकाँ भी करना था