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मैं घर से ज़ेहन में कुछ सोचता निकल आया | शाही शायरी
main ghar se zehn mein kuchh sochta nikal aaya

ग़ज़ल

मैं घर से ज़ेहन में कुछ सोचता निकल आया

हसन निज़ामी

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मैं घर से ज़ेहन में कुछ सोचता निकल आया
सड़क पे ख़ौफ़ का इक सिलसिला निकल आया

वो एक दर्द शगुफ़्ता गुलाब हो कर भी
बदन पे ज़ख़्म सा जैसे नया निकल आया

सुलगती धूप ने इस दर्जा कर दिया बे-ताब
मुझी से साया मेरा हाँफता निकल आया

सफ़ेद-पोशों की तौक़ीर के तहफ़्फ़ुज़ में
हमारे शहर का तबक़ा बड़ा निकल आया

मुझे वो रखता है मसरूफ़ किस नज़ाकत से
कि ग़म से रिश्ता मिरा दूसरा निकल आया

वो एक लम्स था उस का हयात का ज़ामिन
छुआ जो पेड़ तो पत्ता हरा निकल आया