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मैं घर से दूर उताक़-ए-बदन में रहता हूँ | शाही शायरी
main ghar se dur utaq-e-badan mein rahta hun

ग़ज़ल

मैं घर से दूर उताक़-ए-बदन में रहता हूँ

मसऊद मुनव्वर

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मैं घर से दूर उताक़-ए-बदन में रहता हूँ
सवाद-ए-हिज्र के बाब-ए-कुहन में रहता हूँ

कहीं तो रहना है जब तक मिला है इज़्न-ए-क़याम
सो हर्फ़-ओ-सौत के शहर-ए-सुख़न में रहता हूँ

मैं अक्स हूँ तिरे पैराहन-ए-गुल-ओ-मुल का
मैं एक रंग हूँ बर्ग-ए-समन में रहता हूँ

कभी हूँ ज़ुल्फ़ की ज़ोलीदगी में वारफ़्ता
कभी मैं तेरी जबीं की शिकन में रहता हूँ

मिसाल-ए-बोसा-ए-दोशीज़गान-ए-शहर-ए-जमाल
तिरे लबों के गुलाबी चमन में रहता हूँ

मियान-ए-चश्म-ज़दन ढूँढ मुझ को पलकों में
कहीं नहीं हूँ तिलिस्म-ज़दन में रहता हूँ

जहाँ से तू ने निकाला मिरे अब-ओ-जद को
मैं आज भी उसी बाग़-ए-अदन में रहता हूँ

वही हुआ हूँ ग़ज़ाल-ए-सफ़ा के नाफ़े में
मैं मुश्क-ए-ला हूँ हवा-ए-ख़ुतन में रहता हूँ

है पनजनद की गुज़रगाह मेरा निस्फ़ ख़याल
मैं निस्फ़ वादी-ए-गंग-ओ-जमन में रहता हूँ

ज़मीन मेरे लिए सैर-गाह है 'मसऊद'
मैं शम्स-ज़ाद हूँ नीले गगन में रहता हूँ