मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
साथ मेरे रौशनी बन कर सफ़र उस ने किया
इस तरह खींची है मेरे गिर्द दीवार-ए-ख़बर
सारे दुश्मन रौज़नों को बे-नज़र उस ने किया
मुझ में बसते सारे सन्नाटों की लय उस से बनी
पत्थरों के दरमियाँ थी नग़्मा-गर उस ने किया
बे-सर-ओ-सामाँ पे दिलदारी की चादर डाल दी
बे-दर-ओ-दीवार थी मैं मुझ को घर उस ने किया
पानियों में ये भी पानी एक दिन तहलील था
क़तरा-ए-बे-सर्फ़ा को लेकिन गुहर उस ने किया
एक मा'मूली सी अच्छाई तराशी है बहुत
और फ़िक्र-ए-ख़ाम से सर्फ़-ए-नज़र उस ने किया
फिर तो इम्कानात फूलों की तरह खुलते गए
एक नन्हे से शगूफ़े को शजर उस ने किया
ताक़ में रक्खे दिए को प्यार से रौशन किया
उस दिए को फिर चराग़-ए-रहगुज़र उस ने किया
ग़ज़ल
मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
परवीन शाकिर