मैं एक काँच का पैकर वो शख़्स पत्थर था
सो पाश पाश तो होना मिरा मुक़द्दर था
तमाम रात सहर की दुआएँ माँगी थीं
खुली जो आँख तो सूरज हमारे सर पर था
चराग़-ए-राह-ए-मोहब्बत ही बन गए होते
तमाम उम्र का जलना अगर मुक़द्दर था
फ़सील-ए-शहर पे कितने चराग़ थे रौशन
सियाह रात का पहरा दिलों के अंदर था
अगरचे ख़ाना-बदोशी है ख़ुशबुओं का मिज़ाज
मिरा मकान तो कल रात भी मोअत्तर था
समुंदरों के सफ़र में वो प्यास का आलम
कि फ़र्श-ए-आब पे इक कर्बला का मंज़र था
इसी सबब तो बढ़ा ए'तिबार-ए-लग़्ज़िश-ए-पा
हमारा जोश-ए-जुनूँ आगही का रहबर था
जो माहताब हिसार-ए-शब-ए-सियाह में है
कभी वो रात के सीने पे मिस्ल-ए-ख़ंजर था
मैं उस ज़मीं के लिए फूल चुन रहा हूँ 'रईस'
मिरा नसीब जहाँ बे-अमाँ समुंदर था
ग़ज़ल
मैं एक काँच का पैकर वो शख़्स पत्थर था
रईस वारसी