मैं एक हर्फ़ मआ'नी का एक दफ़्तर वो
मैं एक मौज-ए-सराब-ए-जुनूँ समुंदर वो
तमाम साबित-ओ-सय्यार उस के हल्क़ा-ब-गोश
ये काएनात है इक दायरा तो मेहवर वो
तमाम मुम्लिकतें उस के ही क़लम-रौ मैं
सब उस के ज़ेर-ए-नगीं बहर-ओ-बर का दावर वो
सरों पे अहल-ए-करम के है अब्र रहमत का
सितम-गरों के लिए क़हर का है लश्कर वो
कहीं है दिन की तपिश में शजर शजर साया
कहीं है शब के अँधेरे में माह-ओ-अख़तर वो
कोई मदद को न आएगा ऐसी मंज़िल है
पनाह जाँ को मिलेगी अगर है रहबर वो
फिर उस की हम्द-ओ-सना किस तरह लिखी जाए
हुदूद-ए-लफ़्ज़-ओ-मआ'नी से जब है बाहर वो
किताब-ए-दीन की तकमील हो चुकी 'मोहसिन'
ज़मीं पे भेज चुका आख़िरी पयम्बर वो
ग़ज़ल
मैं एक हर्फ़ मआ'नी का एक दफ़्तर वो
मोहसिन ज़ैदी