मैं दोस्त से न किसी दुश्मनी से डरता हूँ
बस इस ज़बान की बे-पर्दगी से दबता हूँ
मैं दूर दूर से ख़ुद को उठा के लाता रहा
कि टूट जाऊँ तो फिर दूर तक बिखरता हूँ
ये सब इशारे मिरे काम क्यूँ नहीं आते
यक़ीं की माँग को रस्म-ए-गुमाँ से भरता हूँ
मैं इतनी दूर निकल आया शहर-ए-हस्ती से
ख़ुद अपनी ज़ात से अक्सर लिपट के रोता हूँ
अभी ज़माना मिरे साथ चलने वाला है
मैं इस ख़याल से जीता हूँ और न मरता हूँ
ज़माना ढूँड रहा है मुझे मकानों में
मैं शहर-ए-ज़ात के अंधे कुएँ में रहता हूँ
हमारे रास्ते जब से जुदा हुए हैं 'सईद'
मैं अपनी ज़ात को महसूस कर तो सकता हूँ
ग़ज़ल
मैं दोस्त से न किसी दुश्मनी से डरता हूँ
सईद नक़वी