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मैं दयार-ए-क़ातिलाँ का एक तन्हा अजनबी | शाही शायरी
main dayar-e-qatilan ka ek tanha ajnabi

ग़ज़ल

मैं दयार-ए-क़ातिलाँ का एक तन्हा अजनबी

तालिब जोहरी

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मैं दयार-ए-क़ातिलाँ का एक तन्हा अजनबी
ढूँढने निकला हूँ ख़ुद अपने ही जैसा अजनबी

आश्नाओं से सवाल-ए-आश्नाई कर के देख
फिर पता चल जाएगा है कौन कितना अजनबी

डूबते मल्लाह तिनकों से मदद माँगा किए
कश्तियाँ डूबीं तो थी हर मौज-ए-दरिया अजनबी

मिल जो मुझ को आफ़ियत की भीक देने आए थे
किस से पूछूँ कौन थे वो आश्ना या अजनबी

बे-मुरव्वत शहरियों ने फ़ासले कम कर दिए
वर्ना पहले शहर को लगता था सहरा अजनबी

ये मुनाफ़िक़ रूप कब से मेरी आदत बन गया
मेरे चेहरे से है क्यूँ मेरा सरापा अजनबी