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मैं दश्त-ए-ज़िंदगी को चला था निखारने | शाही शायरी
main dasht-e-zindagi ko chala tha nikhaarne

ग़ज़ल

मैं दश्त-ए-ज़िंदगी को चला था निखारने

करम हैदरी

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मैं दश्त-ए-ज़िंदगी को चला था निखारने
इक क़हक़हा लगाया गुज़रती बहार ने

गुज़रा हूँ जब सुलगते हुए नक़्श छोड़ता
देखा है मुझ को ग़ौर से हर रहगुज़ार ने

मय-कश ने जाम-ए-ज़हर ही मुँह से लगा लिया
पागल बना दिया जो नशे के उतार ने

इंसान हद्द-ए-नूर से आगे निकल गया
छोड़ा मगर न उस को लहू की पुकार ने

उन मह-रुख़ों की हम से जो ये बे-रुख़ी रही
जाना पड़ेगा चाँद पे कुछ दिन गुज़ारने

करते हैं वो सितारे भी अब मुझ पे चश्मकें
चमका दिया जिन्हें मिरी शब-हा-ए-तार ने

उन गुल-कदों को भी कोई ऐ काश देखता
झुलसा है जिन को आतिश-ए-फ़स्ल-ए-बहार ने

लाऊँ कहाँ से उन के लिए और ग़म-गुसार
जो ग़म दिए हैं मुझ को मिरे ग़म-गुसार ने

मेरी सरिश्त में थी मोहब्बत की परवरिश
मुझ को क़लम दिया मिरे पर्वरदिगार ने

बख़्शा है अपने हुस्न का परतव मुझे 'करम'
फ़ितरत के हर जमील-ओ-हसीं शाहकार ने