मैं बिछड़ कर तुझ से तेरी रूह के पैकर में हूँ
तू मिरी तस्वीर है मैं तेरे पस-मंज़र में हूँ
अपना मरकज़ ढूँडता हूँ दाएरों में खो के मैं
कितने जन्मों से मैं इक महदूद से चक्कर में हूँ
ख़ुद ही दस्तक दे रहा हूँ अपने दर पर देर से
घर से बाहर रह के भी जैसे मैं अपने घर में हूँ
मैं वो आज़र हूँ जिसे बरसों रही अपनी तलाश
ख़ुद ही मूरत बन के पोशीदा हर इक पत्थर में हूँ
देखने वाले मुझे मेरी नज़र से देख ले
मैं तिरी नज़रों में हूँ और मैं ही हर मंज़र में हूँ
गूँजता हूँ अपने अंदर और खो जाता हूँ मैं
इक सदा बन कर अना के गुम्बद-ए-बे-दर में हूँ
मैं कभी इक झील था फैले हुए सहराओं में
आज मैं इक प्यास का सहरा हूँ और सागर में हूँ
मौत को 'आज़ाद' ये इरफ़ान देना है मुझे
काटती है मुझ को जिस से वो मैं उस ख़ंजर में हूँ
ग़ज़ल
मैं बिछड़ कर तुझ से तेरी रूह के पैकर में हूँ
आज़ाद गुलाटी