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मैं भी हूँ इक मकान की हद में | शाही शायरी
main bhi hun ek makan ki had mein

ग़ज़ल

मैं भी हूँ इक मकान की हद में

साबिर ज़फ़र

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मैं भी हूँ इक मकान की हद में
या'नी ज़िंदा हूँ अपने मरक़द में

ख़ामुशी से ये ज़ीस्त कर जाओ
गूँजना क्या ज़मीं के गुम्बद में

भूलता ही नहीं कहीं भी तू
मय-कदे में रहूँ कि मा'बद में

वो भी क्या ख़ूब हैं जो पूछते हैं
कौन सी ख़ूबियाँ हैं मुर्शिद में

फ़ाल-नामा है ज़िंदगी भी 'ज़फ़र'
जी रहा हूँ हुरूफ़-ए-अबजद में