मैं अज़ल का राह-रौ मुझ को अबद की जुस्तुजू
गर्द-ए-रह मेरे जिलौ में साथ मेरे मैं न तू
ज़र्द था चेहरा मगर मसरूर था पहलू में दिल
बर्ग-ए-गुल जब ले उड़ा चुपके से मेरा रंग-ओ-बू
मुझ को अपने शहर का हर एक ज़र्रा है अज़ीज़
ऐ हवा ले जा उड़ा कर ख़ाक मेरी कू-ब-कू
वक़्त का दरिया कि जिस में मैं कँवल बन कर खुला
सोचिए तो बहर है और देखिए तो आबजू
मैं मुसव्विर हूँ मगर तस्वीर है ख़ालिक़ मिरी
रंग भरती है मिरे ख़ाके में मेरी आरज़ू
ज़ात का आईना जब देखा तो हैरानी हुई
मैं न था गोया कोई मुझ सा था मेरे रू-ब-रू
लज़्ज़त-ए-ख़ुद-आगही का फ़ैज़ है 'आरिफ़' कि हम
पहरों अपने आप से रहते हैं महव-ए-गुफ़्तुगू
ग़ज़ल
मैं अज़ल का राह-रौ मुझ को अबद की जुस्तुजू
आरिफ़ अब्दुल मतीन