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मैं अपनी सोचों में एक दरिया बना रहा था | शाही शायरी
main apni sochon mein ek dariya bana raha tha

ग़ज़ल

मैं अपनी सोचों में एक दरिया बना रहा था

अतीक़ अहमद

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मैं अपनी सोचों में एक दरिया बना रहा था
जो टूटी फूटी सी कश्तियों को चला रहा था

तुम्हारे जाने के बा'द बिल्कुल हँसा नहीं मैं
शिकस्ता-पा हो के अपने अंदर को खा रहा था

वो बंद कमरे में मेरी यादें पिरो रही थी
मैं बज़्म-ए-इम्काँ से ख़्वाब जिस के उठा रहा था

मिरी निगह में ये एक मंज़र रुका हुआ है
कि एक सहरा था और दरिया बना रहा था

वो तेरे आने की थी ख़ुशी कि 'अतीक़-अहमद'
जो घर में क़ैदी थे सब परिंदे उड़ा रहा था