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मैं अपनी आँख भी ख़्वाबों से धो नहीं पाया | शाही शायरी
main apni aankh bhi KHwabon se dho nahin paya

ग़ज़ल

मैं अपनी आँख भी ख़्वाबों से धो नहीं पाया

ख़ालिद मलिक साहिल

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मैं अपनी आँख भी ख़्वाबों से धो नहीं पाया
मैं कैसे दूँगा ज़माने को जो नहीं पाया

शब-ए-फ़िराक़ थी मौसम अजीब था दिल का
मैं अपने सामने बैठा था रो नहीं पाया

मिरी ख़ता है कि मैं ख़्वाहिशों के जंगल में
कोई सितारा कोई चाँद बो नहीं पाया

हसीन फूलों से दीवार-ओ-दर सजाए थे
बस एक बर्ग-ए-दिल आसा पिरो नहीं पाया

चमक रहे थे अंधेरे में सोच के जुगनू
मैं अपनी याद के ख़ेमे में सो नहीं पाया

नहीं है हर्फ़-ए-तसल्ली मगर कहूँ 'साहिल'
नहीं जो पाया कहीं यार तो नहीं पाया