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मैं अपने शहर में अपना ही चेहरा खो बैठा | शाही शायरी
main apne shahr mein apna hi chehra kho baiTha

ग़ज़ल

मैं अपने शहर में अपना ही चेहरा खो बैठा

अज़हर नैयर

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मैं अपने शहर में अपना ही चेहरा खो बैठा
ये वाक़िआ' जो सुनाया तो वो भी रो बैठा

तुम्हारी आस में आँखों को मैं भिगो बैठा
कि दिल में यास के काँटे कई चुभो बैठा

मता-ए-हाल न माज़ी का कोई सरमाया
नदी में वक़्त की हर चीज़ को डुबो बैठा

सुनहरे वक़्त की तहरीरें जिन में थीं महफ़ूज़
मैं उन सहीफ़ों को अश्कों से अपने धो बैठा

मैं सुनता रहता था जिस आइने की सरगोशी
वो शहर-ए-संग में अपनी जिला भी खो बैठा

किसी बबूल के साए तले मिली जो अमाँ
तो अपने पाँव में काँटे भी मैं चुभो बैठा

वही रहा है बहर-तौर शादमाँ 'नय्यर'
जो अपने ग़म में ग़म-ए-दीगराँ समो बैठा