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मैं अपने साए से सूरज खा सकता हूँ | शाही शायरी
main apne sae se suraj kha sakta hun

ग़ज़ल

मैं अपने साए से सूरज खा सकता हूँ

क़ाज़ी एजाज़ मेहवर

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मैं अपने साए से सूरज खा सकता हूँ
लेकिन क्या मैं और इक सूरज ला सकता हूँ

बस इक वक़्त की डोरी हाथ मिरे आ जाए
बरसों आगे सदियों पीछे जा सकता हूँ

चाँद तो इक क़िर्तास है मेरे फ़न की ख़ातिर
जो भी चाहूँ उस पर नक़्श बना सकता हूँ

झूट कभी होते होंगे ऐसे दावे पर
आज मैं सच-मुच तारे तोड़ के ला सकता हूँ

यूँही नहीं कहता है चाँद मिरा हम-साया
इक दीवार फलाँग के उस पर जा सकता हूँ

तू अपने दिल की धड़कन काग़ज़ पर लिख दे
तुझ को इस में अपना-आप दिखा सकता हूँ

मैं ने तो सब रागों की शक्लें देखी हैं
तुझ को देख के भी इक राग में गा सकता हूँ

मैं ने दानिस्ता ख़ुद को गुम कर रक्खा है
जब भी चाहूँ अपना खोज लगा सकता हूँ