मैं अपने रू-ए-हक़ीक़त को खो नहीं सकता
वो ख़्वाब देख लिया है कि सो नहीं सकता
तमाम पैकर-ए-बद-सूरती है मर्द की ज़ात
मुझे यक़ीं है ख़ुदा मर्द हो नहीं सकता
अब अपना ग़ैर ही हो लूँ कि कोई राह खुले
जो होना चाहता हूँ वो तो हो नहीं सकता
बड़ा सही प है ना-जिन्स आसमान का बीज
इसे मैं अपनी ज़मीनों में बो नहीं सकता
फँसे हुए हैं ख़ुद अपनी ही भीड़ में आँसू
मैं रोना चाहता हूँ और रो नहीं सकता
तुम अपने जिस्म के कुछ तो चराग़ गुल कर दो
मैं रौशनी हूँ ज़ियादा तो सो नहीं सकता
तुम्हारे ज़ख़्म हैं 'एहसास' और मिट्टी के
मैं आँसुओं से तो ये ज़ख़्म धो नहीं सकता
ग़ज़ल
मैं अपने रू-ए-हक़ीक़त को खो नहीं सकता
फ़रहत एहसास