मैं अगर आइने बनाता हूँ
जौहर-ए-ख़ाक से बनाता हूँ
तुम किसी एक से चले आना
मैं कई रास्ते बनाता हूँ
बात क्या है खुले बस इतना ही
मैं कहाँ मसअले बनाता हूँ
किस की दूरी का ख़ौफ़ है मुझ को
ख़्वाब में दाएरे बनाता हूँ
मैं कि अपनी इसी ख़मोशी से
बात के सिलसिले बनाता हूँ
ज़ख़्म देती है तीरगी और मैं
रौशनी ज़ख़्म से बनाता हूँ
मैं जो ख़ुद को बना नहीं पाया
अब तिरे वास्ते बनाता हूँ

ग़ज़ल
मैं अगर आइने बनाता हूँ
ख़ालिद महमूद ज़की