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मैं आब-ए-इश्क़ में हल हो गई हूँ | शाही शायरी
main aab-e-ishq mein hal ho gai hun

ग़ज़ल

मैं आब-ए-इश्क़ में हल हो गई हूँ

हुमैरा राहत

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मैं आब-ए-इश्क़ में हल हो गई हूँ
अधूरी थी मुकम्मल हो गई हूँ

पलट कर फिर नहीं आता कभी जो
मैं वो गुज़रा हुआ कल हो गई हूँ

बहुत ताख़ीर से पाया है ख़ुद को
मैं अपने सब्र का फल हो गई हूँ

मिली है इश्क़ की सौग़ात जब से
उदासी तेरा आँचल हो गई हूँ

सुलझने से उलझती जा रही हूँ
मैं अपनी ज़ुल्फ़ का बल हो गई हूँ

बरसती है जो बे-मौसम ही अक्सर
उसी बारिश में जल थल हो गई हूँ

मिरी ख़्वाहिश है सूरज छू के देखूँ
मुझे लगता है पागल हो गई हूँ