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मय-कदा-सामाँ थी नज़रों में फ़ज़ा कल रात को | शाही शायरी
mai-kada-saman thi nazron mein faza kal raat ko

ग़ज़ल

मय-कदा-सामाँ थी नज़रों में फ़ज़ा कल रात को

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

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मय-कदा-सामाँ थी नज़रों में फ़ज़ा कल रात को
छा रही थी उन की ज़ुल्फ़ों की घटा कल रात को

हर-नफ़स माँगी दुआ-ए-ख़ैर ईमाँ के लिए
मेरे पहलू में था इक काफ़िर-अदा कल रात को

वो बहार-अफ़रोज़ आँचल सद गुलिस्ताँ दरकिनार
वो बहिश्त-ए-आरज़ू रंगीं-क़बा कल रात को

आईना-बरदार ख़ुल्द-ए-शौक़ वो लौह-ए-जबीं
वो चराग़-ए-तूर रु-ए-पुर-ज़िया कल रात को

वो लब-ए-जिबरील का परतव हसीं तर्ज़-ए-कलाम
क़ुम-बे-इज़्नी का हम ए'जाज़-ओ-अदा कल रात को

उलझे उलझे से वो फ़िक़रे खोई खोई गुफ़्तुगू
सादगी में वो शरारत का मज़ा कल रात को

हासिल-ए-सद-मय-कदा 'मंज़ूर' था मेरे लिए
बे-इरादा मेरा उन का सामना कल रात को