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महव-ए-रुख़-ए-यार हो गए हम | शाही शायरी
mahw-e-ruKH-e-yar ho gae hum

ग़ज़ल

महव-ए-रुख़-ए-यार हो गए हम

मीर मोहम्मदी बेदार

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महव-ए-रुख़-ए-यार हो गए हम
सो जी से निसार हो गए हम

फ़ितराक से बाँध ख़्वाह मत बाँध
अब तेरे शिकार हो गए हम

दामन को न पहुँचे तेरे अब तक
हर चंद ग़ुबार हो गए हम

आता नहीं कोई अब नज़र में
किस से ये दो-चार हो गए हम

था कौन कि देखते ही जिस के
यूँ आशिक़-ए-ज़ार हो गए हम

हस्ती ही हिजाब थी जो देखा
इस बहर से पार हो गए हम

'बेदार' सरिश्क-ए-लाला-गूँ से
हम-चश्म-ए-बहार हो गए हम