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महसूस हो रहा है जो ग़म मेरी ज़ात का | शाही शायरी
mahsus ho raha hai jo gham meri zat ka

ग़ज़ल

महसूस हो रहा है जो ग़म मेरी ज़ात का

बदीउज़्ज़माँ ख़ावर

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महसूस हो रहा है जो ग़म मेरी ज़ात का
सच पूछिए तो दर्द है वो काएनात का

घर की घुटन से दूर निकल जाए आदमी
सड़कों पे ख़ौफ़ हो न अगर हादसात का

अपने बदन को और थकाओ न दोस्तो
ढल जाए दिन तो बोझ उठाना है रात का

इक दूसरे को ज़हर पिलाते हैं लोग अब
बातों में शहद घोल के क़ंद-ओ-नबात का

हर शख़्स तेरे शहर में मुजरिम बना हुआ
फिरता है ढूँढता हुआ रिश्ता नजात का

इस में किसी का अक्स न चेहरा दिखाई दे
धुँदला गया है आइना 'ख़ावर' हयात का