महरूम-ए-ख़्वाब दीदा-ए-हैराँ न था कभी
तेरा ये रंग ऐ शब-ए-हिज्राँ न था कभी
था लुत्फ़-ए-वस्ल और कभी अफ़्सून-ए-इंतिज़ार
यूँ दर्द-ए-हिज्र सिलसिला-जुम्बाँ न था कभी
पुरसाँ न था कोई तो ये रुस्वाइयाँ न थीं
ज़ाहिर किसी पे हाल-ए-परेशाँ न था कभी
हर-चंद ग़म भी था मगर एहसास-ए-ग़म न था
दरमाँ न था तो मातम-ए-दरमाँ न था कभी
दिन भी उदास और मिरी रात भी उदास
ऐसा तो वक़्त ऐ ग़म-ए-दौराँ न था कभी
दौर-ए-ख़िज़ाँ में यूँ मरे दिल को क़रार है
मैं जैसे आश्ना-ए-बहाराँ न था कभी
क्या दिन थे जब नज़र में ख़िज़ाँ भी बहार थी
यूँ अपना घर बहार में वीराँ न था कभी
बे-कैफ़ बे-नशात न थी इस क़दर हयात
जीना अगरचे इश्क़ में आसाँ न था कभी
ग़ज़ल
महरूम-ए-ख़्वाब दीदा-ए-हैराँ न था कभी
नासिर काज़मी