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महरूम-ए-ख़्वाब दीदा-ए-हैराँ न था कभी | शाही शायरी
mahrum-e-KHwab dida-e-hairan na tha kabhi

ग़ज़ल

महरूम-ए-ख़्वाब दीदा-ए-हैराँ न था कभी

नासिर काज़मी

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महरूम-ए-ख़्वाब दीदा-ए-हैराँ न था कभी
तेरा ये रंग ऐ शब-ए-हिज्राँ न था कभी

था लुत्फ़-ए-वस्ल और कभी अफ़्सून-ए-इंतिज़ार
यूँ दर्द-ए-हिज्र सिलसिला-जुम्बाँ न था कभी

पुरसाँ न था कोई तो ये रुस्वाइयाँ न थीं
ज़ाहिर किसी पे हाल-ए-परेशाँ न था कभी

हर-चंद ग़म भी था मगर एहसास-ए-ग़म न था
दरमाँ न था तो मातम-ए-दरमाँ न था कभी

दिन भी उदास और मिरी रात भी उदास
ऐसा तो वक़्त ऐ ग़म-ए-दौराँ न था कभी

दौर-ए-ख़िज़ाँ में यूँ मरे दिल को क़रार है
मैं जैसे आश्ना-ए-बहाराँ न था कभी

क्या दिन थे जब नज़र में ख़िज़ाँ भी बहार थी
यूँ अपना घर बहार में वीराँ न था कभी

बे-कैफ़ बे-नशात न थी इस क़दर हयात
जीना अगरचे इश्क़ में आसाँ न था कभी