महमिल है मतलूब न लैला माँगता है 
चाक-गिरेबाँ क़ैस तो सहरा माँगता है 
हिज्र सर-ए-वीराना-ए-जाँ भी मोहर-ब-लब 
वस्ल गली-कूचों में चर्चा माँगता है 
इस आईना-ख़ाने का हर रक़्स-कुनाँ 
अपने सामने अपना तमाशा माँगता है 
ना-उम्मीदी लाख क़फ़स ईजाद करे 
ताइर-ए-दिल परवाज़-ए-तमन्ना माँगता है 
उम्र बिताता है इमरोज़ में और मकीं 
दरवाज़े पर दस्तक-ए-फ़र्दा माँगता है 
धूप जवानी का याराना अपनी जगह 
थक जाता है जिस्म तो साया माँगता है 
बाँध सग-ए-आवारा चौखट के अंदर 
एक मुसाफ़िर तुझ से रस्ता माँगता है 
लोग तवालत से घबराते हैं वर्ना 
एक ज़माना सीधा रस्ता माँगता है
        ग़ज़ल
महमिल है मतलूब न लैला माँगता है
एजाज़ गुल

