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महफ़िल-ए-इश्क़ में जब नाम तिरा लेते हैं | शाही शायरी
mahfil-e-ishq mein jab nam tera lete hain

ग़ज़ल

महफ़िल-ए-इश्क़ में जब नाम तिरा लेते हैं

सीमाब अकबराबादी

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महफ़िल-ए-इश्क़ में जब नाम तिरा लेते हैं
पहले हम होश को दीवाना बना लेते हैं

रोज़ इक दर्द तमन्ना से नया लेते हैं
हम यूँही ज़िंदगी-ए-इश्क़ बढ़ा लेते हैं

देखते रहते हैं छुप-छुप के मुरक़्क़ा तेरा
कभी आती है हवा भी तो छुपा लेते हैं

रंग भरते हैं वफ़ा का जो तसव्वुर में तिरे
तुझ से अच्छी तिरी तस्वीर बना लेते हैं

दे ही देते हैं किसी तरह तसल्ली 'सीमाब'
ख़ुश रहें वो जो मिरे दिल की दुआ लेते हैं