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महदूद-निगाही के सनम टूट रहे हैं | शाही शायरी
mahdud-nigahi ke sanam TuT rahe hain

ग़ज़ल

महदूद-निगाही के सनम टूट रहे हैं

हयात वारसी

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महदूद-निगाही के सनम टूट रहे हैं
तारीक उजालों के भरम टूट रहे हैं

इस दौर की बदली हुई रफ़्तार का आलम
शीशों की तरह नक़्श-ए-क़दम टूट रहे हैं

तिश्ना है मिरा जाम तो कुछ ग़म नहीं साक़ी
ये ग़म है कि रिंदों के भरम टूट रहे हैं

इस राज़ को अरबाब-ए-सियासत से न पूछो
क्यूँ राब्ता-ए-दैर-ओ-हरम टूट रहे हैं

ये ज़ीस्त है या रीत का कमज़ोर घरौंदा
बन बन के यूँ ही सदियों से हम टूट रहे हैं

हालात का ये रुख़ भी 'हयात' आप समझ लें
क्यूँ ज़ुल्म ब-अंदाज़-ए-करम टूट रहे हैं