मह-ओ-पर्वीं तह-ए-कमंद रहे 
किन फ़ज़ाओं में हम बुलंद रहे 
ग़म-ए-हस्ती से बे-नियाज़ सही 
अहल-ए-दिल फिर भी दर्द-मंद रहे 
चश्म-ए-उक़्दा-कुशा से भी न खुले 
हम कुछ इस तरह बंद बंद रहे 
बर-सर-ए-दार हम सही लेकिन 
हर्फ़-ए-हक़ की तरह बुलंद रहे 
हुस्न की ख़ुद-नुमाईयाँ तौबा 
मुद्दतों हम भी ख़ुद-पसंद रहे 
मय-ओ-मस्ती नहीं है उस पे हराम 
मय-कदे में जो होश-मंद रहे 
हम हैं रहबर से दो क़दम आगे 
हौसले शौक़ से दो-चंद रहे 
दुश्मनों का गिला नहीं 'ताबिश' 
दोस्त भी दरपय-ए-गज़ंद रहे
        ग़ज़ल
मह-ओ-पर्वीं तह-ए-कमंद रहे
ताबिश देहलवी

