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मदरसा आवारगी और हाथ में बस्ता न था | शाही शायरी
madrasa aawargi aur hath mein basta na tha

ग़ज़ल

मदरसा आवारगी और हाथ में बस्ता न था

कृष्ण अदीब

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मदरसा आवारगी और हाथ में बस्ता न था
जो किताबों में है लिखा उस को वो पढ़ता न था

यूँ तो दरवाज़े खुले थे सारे उस के वास्ते
वो मुसाफ़िर रास्तों का एक जा ठहरा न था

जो सुनाता था कभी आब-ए-रवाँ की दास्ताँ
उस के होंटों का मुक़द्दर ओस का क़तरा न था

तिश्नगी ही तिश्नगी थी और सहरा के सराब
आँख पानी पर थी लेकिन सामने दरिया न था

छोड़ आया था जिसे मैं ख़ुद अना के ज़ोम में
फिर पलट कर उस को मैं ने उम्र भर देखा न था

मेरे हाथों में है ख़ुशबू उस के हाथों की 'अदीब'
जिस्म जिस का छू के मैं ने आज तक देखा न था