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मद्द-ए-नज़र नहीं है फ़क़त मेहरबाँ की ख़ैर | शाही शायरी
madd-e-nazar nahin hai faqat mehrban ki KHair

ग़ज़ल

मद्द-ए-नज़र नहीं है फ़क़त मेहरबाँ की ख़ैर

मंज़ूर अहमद मंज़ूर

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मद्द-ए-नज़र नहीं है फ़क़त मेहरबाँ की ख़ैर
शामिल मिरी दुआ में दिल-ए-दुश्मनाँ की ख़ैर

फ़ुर्सत मिले तो अपनी ज़मीं की ख़बर भी ले
ऐ रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल तिरे आसमाँ की ख़ैर

जोश-ए-जुनूँ में पेश-ए-नज़र मस्लहत भी थी
सज्दे किए हैं माँग के उस आस्ताँ की ख़ैर

हर इंस-ओ-जाँ ने आँख कड़े वक़्त फेर ली
हम थे कि माँगते रहे हर इंस-ओ-जाँ की ख़ैर

यख़-बार सर्द-मेहरी-ए-इंसाँ से काएनात
इस अर्ज़-ए-ज़महरीर में क़ल्ब-ए-तपाँ की ख़ैर

इंसाँ का हाथ उन की तरफ़ भी दराज़ है
पाकीज़गी-ए-हुस्न-ए-मह-ओ-कहकशाँ की ख़ैर

टूटा है दिल जराहत-ए-चारा-गराँ का शुक्र
टूटा है जाम निय्यत-ए-शीशा-गराँ की ख़ैर

ये शाख़-ए-सर-बरहना ये झक्कड़ ये रक़्स-ए-बर्क़
'मंज़ूर' ख़ैर ख़ैर तिरे आशियाँ की ख़ैर