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मदार-ए-ज़ात के गिर्दाब से निकल आऊँ | शाही शायरी
madar-e-zat ke girdab se nikal aaun

ग़ज़ल

मदार-ए-ज़ात के गिर्दाब से निकल आऊँ

रूमाना रूमी

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मदार-ए-ज़ात के गिर्दाब से निकल आऊँ
मैं अपनी ज़ात के अस्बाब से निकल आऊँ

बस एक बार तो पानी पे अपना अक्स दिखा
क़सम-ख़ुदा-की मैं सैलाब से निकल आऊँ

जो महव-ए-रक़्स न हूँ मेरी रूह के हमराह
मैं ऐसे हल्क़ा-ए-अहबाब से निकल आऊँ

मैं अपनी जागती आँखों से ज़िंदगी देखूँ
मिरी तमन्ना है मैं ख़्वाब से निकल आऊँ

तिरा तो लहजा बहुत दिल-शिकन है ऐ जानाँ
तिरी कहानी के हर बाब से निकल आऊँ

जो तेरे लम्स की हिद्दत को जीत लूँ तो मैं
फिर अपनी ज़ात के बर्फ़ाब से निकल आऊँ

गुँधा हुआ है मिरी ज़ात के ख़मीर में ये
मैं कैसे आलम-ए-असबाब से निकल आऊँ

ये रौशनी मिरी तहज़ीब का ही हासिल है
मैं कैसे हल्क़ा-ए-आदाब से निकल आऊँ

जो मेरा प्यार है 'रूमी' अगर कभी मिल जाए
मैं अपनी ज़ात के हर ख़्वाब से निकल आऊँ