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मारे ग़ुस्से के ग़ज़ब की ताब रुख़्सारों में है | शाही शायरी
mare ghusse ke ghazab ki tab ruKHsaron mein hai

ग़ज़ल

मारे ग़ुस्से के ग़ज़ब की ताब रुख़्सारों में है

शौक़ क़िदवाई

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मारे ग़ुस्से के ग़ज़ब की ताब रुख़्सारों में है
कल तो थी फूलों में गिनती आज अँगारों में है

तब की सोज़िश से मिरे चेहरे की सुर्ख़ी देखना
कुछ तुम्हें ख़ुश-रू नहीं ये फिर तरह-दारों में है

रूह तेरे घर को छोड़े ये कभी मुमकिन नहीं
जिस्म मेरा ख़ाक हो कर उस की दीवारों में है

इतनी ज़र्दी सारी दुनिया की ख़िज़ाँ में भी न हो
जितनी और ज़ालिम तिरी उल्फ़त के बीमारों में है

या घटे कुछ इश्क़ मेरा या बढ़े दुनिया में हुस्न
ये तो ना-काफ़ी है जितना उन दिल-आज़ारों में है

आइने में डालता है रुख़ पे मेरी सी निगाह
तू भी मेरे साथ उल्फ़त के गुनहगारों में है

क़ुदरत इतने नाज़ पैदा कर सकेगी या नहीं
उन का जितना सर्फ़ तेरे नाज़-बरदारों में है

मसअला कसरत में वहदत का हुआ हल तुम से ख़ूब
एक ही झूट और तुम्हारे लाख इक़रारों में है

क़ैद में कितनी बढ़ी मेरे जुनूँ की काहिली
उस से कम है जितनी दुनिया भर के बे-कारों में है

चाँद ही कह दे जो देखा हो कहीं तुझ सा हसीं
उस ने भी देखी है दुनिया ये भी सय्यारों में है

कुफ़्र ने इस्लाम को शायद कहीं मारा कि 'शौक़'
मातमी पोशाक से का'बा अज़ादारों में है