मानता नहीं मेरी हुज्जतें भी करता है
बात बात में अपनी जिद्दतें भी करता है
आग भी लगाता है आप अपने दामन में
फिर उसे बुझाने को बारिशें भी करता है
इश्क़ ख़ुद से है उस को और ख़ुद ही वो पागल
अपना आप खोने की साज़िशें भी करता है
दिल में जीते रहने की आस बढ़ती रहती है
साथ साथ मरने की ख़्वाहिशें भी करता है
जाँ-कनी के आलम में याद कर के प्यारों को
मौत के फ़रिश्ते से मन्नतें भी करता है
मुझ से थोड़ा डरता है पास यूँ नहीं आता
बाक़ियों से तो अक्सर ख़ल्वतें भी करता है
मुझ से कहता रहता है ख़ुश रहा करो नाँ तुम
और दिल दुखाने की हरकतें भी करता है
बात भी नहीं करता मुझ से और फिर अपनी
एक एक आदत में मंतिक़ें भी करता है
कुछ अलग सा है सब से कुछ अजब वो है 'ज़ेहरा'
अपनी हर मोहब्बत में शिद्दतें भी करता है
ग़ज़ल
मानता नहीं मेरी हुज्जतें भी करता है
उरूज ज़ेहरा ज़ैदी