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मा'नी-ओ-मफ़्हूम क्या हों इश्क़ के मज़मून में | शाही शायरी
mani-o-mafhum kya hon ishq ke mazmun mein

ग़ज़ल

मा'नी-ओ-मफ़्हूम क्या हों इश्क़ के मज़मून में

बिस्मिल सईदी

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मा'नी-ओ-मफ़्हूम क्या हों इश्क़ के मज़मून में
जिस तरह कोई ख़याल आए दिल-ए-मजनून में

इश्क़ से होती है इस शिद्दत की गर्मी ख़ून में
खौलता है जैसे दरिया दोपहर को जून में

जिस्म में रग रग फड़क उठती है सोज़-ए-इश्क़ से
गर्म-ए-तुग़्याँ जिस तरह अमवाज हों जैजून में

हुस्न से वाज़ेह हुई है मा'नविय्यत इश्क़ की
शामिल-ए-मफ़्हूम है उन्वान भी मज़मून है

यूँ तो हैं अज्ज़ा बहुत से शामिल-ए-तरकीब-ए-इश्क़
आरज़ू लेकिन सर-ए-दारू है इस माजून में

इस तरह हूँ क़ैदी-ए-हालात 'बिस्मिल' जिस तरह
शेर हो पिंजरे में या शाह-ए-ज़फ़र रंगून में