माँगा था हम ने दिन वो सियह रात दे गया
सूरज हमें अँधेरे की सौग़ात दे गया
सिक्के मिरे ख़ुलूस के लौटा दिए मुझे
अपनी समझ में वो मुझे ख़ैरात दे गया
उस को ये ज़ो'म था कि है वो शौकत-ए-चमन
जंगल का एक फूल उसे मात दे गया
उस की हँसी में लय थी किस जल-तरंग की
मेरे लबों को प्यार के नग़्मात दे गया
मज़मून-ए-इश्क़ पर उसे कामिल गिरफ़्त थी
नज़रों से कैसे कैसे हवालात दे गया
चेहरे से ले गया मिरी पहचान छीन कर
ना-साज़गार वक़्त वो सदमात दे गया
सब पर मिरी निगाह-ए-करम एक सी रही
मैं बाँझ धरतियों को भी बरसात दे गया
इंसाफ़ मुझ को दे कि न दे वो मगर 'शबाब'
थोड़ा सा वक़्त बहर-ए-मुलाक़ात दे गया
ग़ज़ल
माँगा था हम ने दिन वो सियह रात दे गया
शबाब ललित