माना उस को गिला नहीं मुझ से
कुछ तो है जो कहा नहीं मुझ से
हक़ नहीं दोस्ती का ऐसा कोई
जो कि उस को मिला नहीं मुझ से
दिल ही दिल में वो बुग़्ज़ रखता है
जो ब-ज़ाहिर ख़फ़ा नहीं मुझ से
कुछ तो होगा ज़रूर इस का सबब
वो जो अब तक लड़ा नहीं मुझ से
लाख पीछा छुड़ाना चाहा मगर
ग़म हुआ ही जुदा नहीं मुझ से
कैसे रह पाएगा वो मेरे बग़ैर
जो अलग ही रहा नहीं मुझ से
जो ब-ज़ाहिर ख़फ़ा है ऐ 'महताब'
वो ब-बातिन ख़फ़ा नहीं मुझ से
ग़ज़ल
माना उस को गिला नहीं मुझ से
बशीर महताब