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माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते | शाही शायरी
mana kisi zalim ki himayat nahin karte

ग़ज़ल

माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते

आसिम वास्ती

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माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते
हम लोग मगर खुल के बग़ावत नहीं करते

करते हैं मुसलसल मिरे ईमान पे तन्क़ीद
ख़ुद अपने अक़ीदों की वज़ाहत नहीं करते

कुछ वो भी तबीअ'त का सुखी ऐसा नहीं है
कुछ हम भी मोहब्बत में क़नाअ'त नहीं करते

जो ज़ख़्म दिए आप ने महफ़ूज़ हैं अब तक
आदत है अमानत में ख़यानत नहीं करते

क्यूँ इन को मिला मंसब-ए-अफ़्ज़ाइश-ए-गीती
ये लोग तो मिट्टी से मोहब्बत नहीं करते

कुछ ऐसी बग़ावत है तबीअ'त में हमारी
जिस बात की होती है इजाज़त नहीं करते

तंज़ीम का ये हाल है इस शहर में 'आसिम'
बे-साख़्ता बच्चे भी शरारत नहीं करते