माना कि ज़िंदगी से हमें कुछ मिला भी है
इस ज़िंदगी को हम ने बहुत कुछ दिया भी है
महसूस हो रहा है कि तन्हा नहीं हूँ मैं
शायद कहीं क़रीब कोई दूसरा भी है
क़ातिल ने किस सफ़ाई से धोई है आस्तीं
उस को ख़बर नहीं कि लहू बोलता भी है
ग़र्क़ाब कर दिया था हमें ना-ख़ुदाओं ने
वो तो कहो कि एक हमारा ख़ुदा भी है
हो तो रही है कोशिश-ए-आराइश-ए-चमन
लेकिन चमन ग़रीब में अब कुछ रहा भी है
ऐ क़ाफ़िले के लोगो ज़रा जागते रहो
सुनते हैं क़ाफ़िले में कोई रहनुमा भी है
हम फिर भी अपने चेहरे न देखें तो क्या इलाज
आँखें भी हैं चराग़ भी है आइना भी है
'इक़बाल' शुक्र भेजो कि तुम दीदा-वर नहीं
दीदा-वरों को आज कोई पूछता भी है
ग़ज़ल
माना कि ज़िंदगी से हमें कुछ मिला भी है
इक़बाल अज़ीम