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माना कि यहाँ अपनी शनासाई भी कम है | शाही शायरी
mana ki yahan apni shanasai bhi kam hai

ग़ज़ल

माना कि यहाँ अपनी शनासाई भी कम है

ज़िया ज़मीर

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माना कि यहाँ अपनी शनासाई भी कम है
पर तेरे यहाँ रस्म-ए-पज़ीराई भी कम है

हाँ ताज़ा गुनाहों के लिए दिल भी है बेताब
और पिछले गुनाहों की सज़ा पाई भी कम है

कुछ कार-ए-जहाँ जाँ को ज़ियादा भी लगे हैं
कुछ अब के बरस याद तिरी आई भी कम है

कुछ ग़म भी मयस्सर हमें अब के हैं ज़ियादा
कुछ ये कि मसीहा की मसीहाई भी कम है

कुछ ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत भी है हम को
कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है