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माना कि मेरे ज़र्फ़ से बढ़ कर मुझे न दो | शाही शायरी
mana ki mere zarf se baDh kar mujhe na do

ग़ज़ल

माना कि मेरे ज़र्फ़ से बढ़ कर मुझे न दो

शाज़ तमकनत

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माना कि मेरे ज़र्फ़ से बढ़ कर मुझे न दो
शबनम ही माँगता हूँ समुंदर मुझे न दो

जिस को हवा के रुख़ पे न खोला गया कभी
इक ऐसे बादबाँ का मुक़द्दर मुझे न दो

दीवार जिस की सरहद सहरा से जा मिले
ऐसी सज़ा-ए-ख़ाना-ए-बे-दर मुझे न दो

लौ दे रही है सोच के वक़्फ़ा की ख़ामुशी
हर बात का जवाब सँभल कर मुझे न दो

कुछ दे सको अगर तो कोई ख़्वाब सौंप दो
साया तलाश करता हूँ पैकर मुझे न दो

मैं आप अपने जुर्म-ओ-सज़ा का हरीफ़ हूँ
इल्ज़ाम-ए-शौक़ सब के बराबर मुझे न दो

गर सुन सको तो 'शाज़' की ख़ामोशियाँ सुनो
तकलीफ़-ए-अर्ज़-ए-हाल मुकर्रर मुझे न दो