माना कि मेरे ज़र्फ़ से बढ़ कर मुझे न दो
शबनम ही माँगता हूँ समुंदर मुझे न दो
जिस को हवा के रुख़ पे न खोला गया कभी
इक ऐसे बादबाँ का मुक़द्दर मुझे न दो
दीवार जिस की सरहद सहरा से जा मिले
ऐसी सज़ा-ए-ख़ाना-ए-बे-दर मुझे न दो
लौ दे रही है सोच के वक़्फ़ा की ख़ामुशी
हर बात का जवाब सँभल कर मुझे न दो
कुछ दे सको अगर तो कोई ख़्वाब सौंप दो
साया तलाश करता हूँ पैकर मुझे न दो
मैं आप अपने जुर्म-ओ-सज़ा का हरीफ़ हूँ
इल्ज़ाम-ए-शौक़ सब के बराबर मुझे न दो
गर सुन सको तो 'शाज़' की ख़ामोशियाँ सुनो
तकलीफ़-ए-अर्ज़-ए-हाल मुकर्रर मुझे न दो
ग़ज़ल
माना कि मेरे ज़र्फ़ से बढ़ कर मुझे न दो
शाज़ तमकनत